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रखना खुले द्वार / उपेन्द्र कुमार

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वातायान द्वार
लगते हैं करने बन्द
न होने पर
ऋतुओं के थोड़ा भी
मनोनुकूल
या तेज होते ही हवा की गति तनिक-सी भी
जाते हैं बैठ बन्दी बने
गृह-कारा में निश्चिंत
वायु के तरंगायित कम्पनों
तथा मौसम के इंगितों से
कर अलग स्वयं को

चली होती है हवा
आकाशों के भी
ऊपर वाले आकाशों से
सूक्ष्तम कम्पनों की तरंगें ले
पेड़ों ने, पत्तों ने
झूम-झूम कितना कुछ कहा होता है उसमें
फूलों ने उसे कितना दुलराया
पक्षियों ने उसे कितना फड़फड़ाया
और सूरज तथा बादलों ने
जोन क्या-क्या भरा होता है उसमें।
और यह सब साथ ले
तेज-तेज चलती हुई
जब आती है वो
पास हमारे
तो बैठे होते हैं हम
बन्द कर अपने मन-द्वार
चुम्बकीय आकर्षण में आबद्ध
नृत्यरत पृथ्वी
और सूर्य के
मृदुल संकेतों पर
कर नित नूतन शृंगार
रिक्षा मानिति प्रकृति को
रंग उसे अपने रंग में
स्वयं की सफलता पर
उत्साहित, किंचित उत्तेजित-सा
नाचता, इठलाता
ऐसे ही जब मौसम भी
आता है पास हमारे
तो होते हैं बैठे हम
बन्द दरवाजों खिड़कियों से पीछे
असम्पृक्त

नहीं ज्ञात
किस सर्प के
ललचाने पर
कर लिया
अविष्कृत
और फिर
परम्परा के उत्तराधिकार में
पाते रहे
ये द्वार, ये गवाक्ष।
रहे ढूँढ़ते
नए-नए रास्ते
इनके उपयोग के।
बनते गए पाषाण
अंशों में
धीरे-धीरे।
किसी अनिश्चित अपरिचित
राम के आगमन तथा प्रज्ञा स्पर्श हेतु
प्रतीक्षारत रहने से तो होगा बेहतर
कि हर कोई सुने
हवा के प्रत्येक कम्पन को
करे प्रयत्न समझने का
उसमें निहित सन्देशों को
जो हो सकता है कुछ भी
अर्थहीन
अथवा विभिनन सृष्टियों के
अगम्य रहस्यों से
आविष्ट इतना
कि न हो पाए सम्प्रेषित
अविष्कृत शब्दार्थों से
परिचित ध्वनियों से।
जोन हुए त्यों की सीमा के भीत
यदि हर कोई सुने
शताब्दियों के
समस्त द्वारों को खोल
नहीं मानते हुए
परिचित ध्वनियों
शब्दों उनके अर्थों को
समझ की लक्ष्मण रेखा
और वो सब कुछ
जो जाए समझ की परिपूर्णता की परिधि में
उसे भी करे अविष्कृत

मंत्रों की भाँति
उचारे
मिलाए उन्हें
मिलाए उन्हें
खुले द्वारों, वातायनों से
आए इंगितों, संकेतों के साथ
बिना किए उन्हें
आन्दोलित या विचलित
गूँज की अनुगूँज की तरह
ताकि हवा फिर बहे
जा निकले बाहर
मौसमों के बीच
पेडों की ओर
जो सम्भव है
खड़े हों
या रहे हों झूम
निभाते हुए भूमिका अपनी
प्रकृति के निर्देशन में
रहे हों गा
स्वर मिला
बादलों तथा आकाशगंगा के संग

वहीं तो
मिलेगी हवा मौसम से
बताएगी
निष्प्रयोजन प्रयासों के रहस्य
द्वारों के खुलने का समाचार
मनाएगी
प्रज्ञा मुक्ति का पर्व
और बहला कर
ले आएगी
मौसम को
हम सबके बीच
ताकि मिलकर दोनों
कर सकें शुरू अपना काम
जो भी पाषाण-खंड
हों विद्यमान
हों वे अतीत या वर्तमान
चुन-चुन कर उन्हें
दे पहुँचा
भविष्य के भी पार
बस खुले रखना द्वार...