भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रखो दफ्तर की बातें सिर्फ दफ्तर तक / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
रखो दफ्तर की बातें सिर्फ दफ्तर तक
न पहुँचाओ उन्हें उसकी मंगेतर तक
समय का फेर था- तब शेर बन्दी था
तो उसको घुड़कियाँ देते थे बन्दर तक
नहीं पहुँचे तो केवल हम नहीं पहुँचे
सभी पहुँचे थे आलीजाह के दर तक
पराए घर के अन्दर झाँकने वाले
कभी झाँका है अपने घर के अन्दर तक?
ये किस शिल्पी के हाथों का करिश्मा है
जो जीवित हो उठा बेजान पत्थर तक
महत्वाकांक्षी पति के इशारे पर
गई थी कल भी वो साहब के बिस्तर तक
कुएँ की हस्ती उनको तंग लगती है
जो दुनिया देख आए हैं समन्दर तक