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रगरु बटा भरि चन्नन, लिखु लाढ़ो कोहबर हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

चंदन से चर्चित कोहबर में दुलहिन के साथ दुलहा सोने गया। रात में उसने दुलहिन से बात तक नहीं की। दुलहिन से सूचना पाकर उसकी माँ ने दुलहे से पूछा- ‘बाबू क्या तुमको दान-दहेज कम मिला है या मेरी कन्या में कोई कमी है कि तुम उदास हो?’ दुलहे ने सास को सांत्वना देते हुए कहा- ‘अम्माँ, ऐसी बात नहीं है। सब कुछ ठीक है। मैं उदास भी नहीं हूँ। दूर से आने के कारण थकावट से नींद आ गई। फिर तो रूठना शुरू हुआ और जब तक हम दोनों में स्नेह बढ़ा, तब तक सवेरा हो गया था और वैरी मुरगे बाँग देने लगे थे।’

प्रथम मिलन के समय मुरगे क बोली से प्रेमी हृदय को आघात लगना स्वाभाविक है।

रगरु बटा<ref>बड़ा कटोरा</ref> भरि चन्नन, लिखु लाढ़ो<ref>लाड़ली</ref> कोहबर हे।
अीहि कोहबर सूते गेली, कनिया सोहबी हे।
एक रे करवट धनि सूतल, मुखहूँ न बोलै हे॥1॥
किय बाबू दान रे दहेज, किय रे जैतुक<ref>विवाहादि के अवसर पर कन्या को दी जाने वाली विभिन्न सामग्री</ref> थोड़ हे।
किय बाबू कनियाँ भेलै छोट, किय रे मन बेदिल हे॥2॥
नहिं अम्माँ दान रे दहेज थोड़, नहिं रे जैतुक थोड़ हे।
नहिं अम्माँ कनियाँ भेल छोट, नहिं रे मन बेदिल हे॥3॥
दूर रे गबन सेॅ आयल, पैर थकित भेल हे।
अगल रे पहर राति रुसन भेल, पिछला पहर राति हे॥4॥
होयते भिनुसरबा सनेह लागल, मुरगा बैरी भेल हे।
मारबौ रे मुरगा तोड़बौ डैना, जोड़ल सनेह तोरि देल हे॥5॥

शब्दार्थ
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