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रगों में चीखते नारे लहू-सा चलते हैं / कुमार नयन

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रगों में चीखते नारे लहू-सा चलते हैं
मिरे जिगर में हज़ारों जुलूस पलते हैं।

सदी की आग का अंदाज़ा क्या लगाओगे
फ़क़त ये जिस्म नहीं साये भी पिघलते हैं।

बहार भी न गुलों को खिला सके शायद
यहां दरख़्त फ़ज़ा में धुआं उगलते हैं।

कोई नहीं है नया कुछ भी सोचने वाला
यहां ढले हुए सांचे में लोग ढलते हैं।

पता न था कि ज़माने का रंग यूँ होगा
हमारे खून के रिश्ते भी अब बदलते हैं।

सितमगरों की सियासत ठठा के हंसती है
घरों से ख़ौफ़ज़दा लोग जब निकलते हैं।