भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रघुवर का माथा / प्रेम कुमार "सागर"
Kavita Kosh से
गूंगी हसरत, बदहोश जुबां का कैसा नाता है
बहरी दुनिया में हर समय वह गीत गाता है
तूफानी शाम, जलता तीर, बहता रेत का दरिया
ढहेगा है पता, फिर क्यूँ, घरौंदे वह बनाता है
किया जो ख़ाक खुद को तो किसी को दोष मत देना
शमां सुलगे तो परवाना क्यूँ उसके पास जाता है
लक्ष्मण विद्रोही हो चला कलयुग रामायण में
रावण के पैर पर झुका, रघुवर का माथा है
हिन्दू-मुस्लिम है, सिख है, काफिर इसाई है
क्यूँ बाँटा बेतरह जब एक ही सबका विधाता है
हथौड़े यूँ हकीकत के वजूद पर चोट करते है
सागर तेरा सपना हमेशा टूट जाता है ||