रघुविन्द्र यादव के दोहे-2 / रघुविन्द्र यादव
कहीं भेड़िये घात में, कहीं शिकारी जाल।
है हिरनी के भाग्य में, मरना सदा अकाल॥
घर से निकली तितलियाँ, खतरों से अनजान।
बीच बाग में कर गये, भँवरे लहूलुहान॥
नफ़रत बोते फिर रहे, योगी, भोगी, संत।
बनने को बेताब हैं, नवयुग के सामंत॥
हैं नारी के भाग्य में, दर्द, घुटन, अवसाद।
अपने जिसको लूटते, कहाँ करे फ़रियाद॥
गहने होते थे कभी, लाज, शर्म, संस्कार।
अब ये जिसके पास हैं, कहलाते लाचार॥
किसे सुनाये द्रौपदी, घायल मन की पीर।
धर्मराज ही खींचते, अब नुक्कड़ पर चीर॥
गली गली में हो रहा, चीर हरण अपमान।
अंधे राजा बाँटते, पीड़ित को ही ज्ञान॥
कोने कविता में पड़ी, गीत फिरें भयभीत।
मान विदूषक पा रहे, अजब चली है रीत॥
ऊपर बैठे लिख रहा, सबके जीवन लेख।
हिम्मत है तो या खुदा, जग में आकर देख॥
आँसू, आहें, बेबसी, हलधर की तकदीर।
शासन की सब नीतियाँ, बढ़ा रही हैं पीर॥
हालत देख समाज की, आये याद कबीर।
दोहों में बहने लगी, अक्षर अक्षर पीर॥
ख़त्म हुआ यूँ आपसी, भाई चारा, प्यार।
अब तो खबर पड़ोस की, देता है अखबार॥
धनिकों का करती रही, दिल्ली सतत विकास।
भूखों को सिखला रही, धर्म कर्म उपवास॥
अरी भेड़ अब मान ले, सत्ता का अहसान।
उन काटकर दे रही, तुझे दुशाला दान॥
नायक बने समाज के, झूठे दुष्ट लबार।
हांडी अब तो काठ की, चढ़ती बारम्बार॥
दुनिया नाहक पालती, अहम वहम अभिमान।
लालकिला खाली पड़ा, शीशमहल वीरान॥
डाल दिए हैं जेल में, पकड़ पकड़ खरगोश।
मगर देखकर भेड़िये, पुलिस हुई बेहोश॥
अपनी आँखों देख लें, समदर्शी का न्याय।
कहीं भूख से मौत है, कहीं करोड़ों आय॥
बाँट रहा बारूद अब, कहकर शुद्ध अबीर।
करनी देखी संत की, आये याद कबीर॥
डाल दिए खुद सत्य ने, बिना लड़े हथियार।
वरना होती झूठ की, यहाँ शर्तिया हार॥