रघुविन्द्र यादव के दोहे-4 / रघुविन्द्र यादव
लोग झूठ के पक्ष में, देते मिलें दलील।
शिष्टाचारी देश में, होता सत्य ज़लील॥
घर त्यागा मठ में गया, ग्रहण किया संन्यास।
तन मन से भोगी रहा, बदला सिर्फ़ लिबास॥
लोग मछलियों पर यहाँ, यूँ करते अहसान।
जल से बाहर फेंककर, देते जीवन दान॥
पाल अहम का सब रहे, बड़ा भयंकर रोग।
लम्बी लम्बी फेंकते, औने पौने लोग॥
हलधर के हालात में, आया नहीं सुधार।
कोटेदार खरीदता, सालाना दो कार॥
पढ़ने को बेताब था, शायर नया कलाम।
सिक्कों की झंकार सुन, बोला सिर्फ़ सलाम॥
करने होंगे लेखनी, तुझे समय से प्रश्न।
झोपड़ियों में भूख है, महलों में क्यों जश्न?
धन की ताक़त ने किया, फिर से नया कमाल।
छोड़ दिए वैताल ने, करने सभी सवाल॥
जीत रहा हर बार वो, जिसके बड़े वकील।
बेवा कि ख़ारिज करें, हाकिम सभी अपील॥
अगर करेंगे भेड़िये, जंगल में इन्साफ।
शीश कटेगा चोर का, कातिल होंगे माफ़॥
जाति धर्म सब हैं खड़े, आरोपी के साथ।
न्याय मिलेगा किस तरह, पीड़ित खाली हाथ॥
चाहत खरपतवार की, दे बरगद को मात।
घुटने से नीचे रहे, मगर भेड़ की लात॥
एक तरह के फूल से, जिनका है अनुराग।
वे बहुरंगी बाग़ में, लगा रहे हैं आग॥
पूछ रही है ज़िन्दगी, हर दिन वही सवाल।
क्या जीवन का लक्ष्य है, केवल रोटी दाल॥
तड़प रही हैं मछलियाँ, सूख रहा है ताल।
राहत देने आ गया, शासन लेकर जाल॥
काँटों का जिस देश में, होता है सम्मान।
होना निश्चित है वहाँ, फूलों का अपमान॥
लाल चौक घायल पड़ा, रोती है डल झील।
घाटी का दुख कह सके, कोई नहीं वकील॥
सुनी नहीं तहसील ने, रिश्वत बिना दलील।
रामदीन होता रहा, सारी उम्र ज़लील॥
दरिया का पानी गया, शेष बची है रेत।
एक एक कर बिक रहे, गहने बर्तन खेत॥
गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल।
आँगन में उगने लगे, नागफनी के फूल॥