रघुविन्द्र यादव के दोहे-5 / रघुविन्द्र यादव
कैसे लिखता मीत मैं, सावन वाले गीत।
मानवता पर हो रही, दानवता कि जीत॥
नए दौर ने कर दिए, धर्मवीर लाचार।
जती सती भूखे मरें, मौज करें बदकार॥
साजिश है ये वक़्त की, या केवल संयोग।
नागों से भी हो गए, अधिक विषैले लोग॥
हर कोई स्वच्छंद है, कैसा शिष्टाचार।
पत्थर को ललकारते, शीशे के औजार॥
वक़्त खेलता है सदा, अजब अनोखे खेल।
कल पटरी थी रेल पर, अब पटरी पर रेल॥
दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज।
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज॥
नया दौर रचने लगा, नए नए प्रतिमान।
भाव कौड़ियों के बिके, मानव का ईमान॥
मासूमों के खून से, खेलें जो दिन रात।
दिल्ली उन से कर रही, समझौते की बात॥
नेता लूटें देश को, पायें छप्पन भोग।
जनता कि किस्मत बने, भूख, गरीबी, रोग॥
हत्या, डाका, रहजनी, घूस और व्यभिचार।
नेता करने लग गए, लाशों का व्यापार॥
कुर्सी पाने के लिए, खेल रहे हैं खेल।
कल तक जिससे वैर था, आज उसी से मेल॥
राजनीति अपराध का, जब से हुआ कुमेल।
सच के पौधे सूखते, हरी झूठ jiकी बेल॥
मंजिल उसको ही मिली, जिसमें उत्कट चाह।
निकल पड़ा जो ढूँढने, पाई उसने राह॥
चोरी कर कर घर भरा, जोड़े लाख करोड़।
जेब कफ़न में थी नहीं, गया यहीं सब छोड़॥
भ्रष्ट व्यवस्था ने किये, पैदा वह हालात।
जुगनू भी अब पूछते, सूरज से औकात॥
भ्रष्ट व्यवस्था कर रही, सारे उलटे काम।
अन्न सड़े गोदाम में, भूरा मरे अवाम॥
तुलसी काटी, बो दिए, कीकर और बबूल।
नए दौर की सभ्यता, कैसे करूँ कबूल?
धन की खातिर बेचता, आये दिन ईमान।
गिरने की सीमा सभी, लाँघ गया इंसान॥
ताकत के बल चल रहा, दुनिया का व्यवहार।
झूठ बुलंदी छू रहा, सत्य खड़ा लाचार॥
सच को सच कैसे लिखे, जिसका मरा ज़मीर।
अमर कबीरा हो गया, लिख जनता कि पीर॥