रघुविन्द्र यादव के दोहे-7 / रघुविन्द्र यादव
पहन मुखौटा धर्म का, करते दिनभर पाप।
भंडारे करते फिरें, घर में भूखा बाप॥
बरगद रोया फूटकर, घुट घुट रोया नीम।
बेटों ने जिस दिन किये, मात पिता तकसीम॥
घुट घुट कर माँ मर गई, पूछा कभी न हाल।
देवी माँ का जागरण, करते हैं हर साल॥
मातृभक्त सबसे बड़े, उनकी कहाँ मिसाल।
'मातृसदन' घर पर लिखा, माँ को दिया निकाल॥
घर आँगन बाँटे गये, बाँट लिये हल बैल।
हिस्से में माँ बाप को, दिया गया खपरैल॥
तन से शहरी हो गए, पर मन में है गाँव।
भूल न पाये आज तक, बरगद वाली छाँव॥
चौपालें खामौश हैं, पनघट हैं वीरान।
बाँट दिया किसने यहाँ, न$फरत का सामान॥
दौलत उसके पास है, अपने पास ज़मीर।
वक़्त करेगा फ़ैसला, सच्चा कौन अमीर॥
हंस चाकरी कर रहे, काग बने सरदार।
करने लगे गँवार भी, शिक्षा का व्यापार॥
झूठ मलाई खा रहा, छल के सिर पर ताज।
सत्य मगर है आज भी, रोटी को मुहताज॥
बेटी निकली काम पर, पिता हुआ बेचैन।
जब तक घर लौटी नहीं, रहे द्वार पर नैन॥
गये जमाने त्याग के, शेष रह गया भोग।
लाशों को भी लूटते, हैं कलियुग के लोग॥
होता रहा समाज में, दीपक का गुणगान।
बाती के बलिदान पर, नहीं किसी का ध्यान॥
अपने ही शोषण करें, कौन बँधाए धीर।
सभी डालना चाहते, औरत को ज़ंजीर॥
साँप नेवलों में बढ़ा, जब से मेल मिलाप।
दोनों दल खुशहाल हैं, करता देश विलाप॥
जनहित की परवाह नहीं, नहीं लोक की लाज।
कौओं की सरकार का, करें समर्थन बाज॥
साँप नेवलों ने किया, समझौता चुपचाप।
पाँच साल हम लूट लें, पाँच साल फिर आप॥
होगा कैसे देश से, राजतंत्र का अंत।
लोकतंत्र भी दे रहा, नये नये सामंत॥
उभर रही है देश की, खौफ़नाक तस्वीर।
भाव ज़मीनों के बढ़े, सस्ते हुए ज़मीर॥
जमकर हुआ विकास तो, हम को कब इन्कार।
लोग भूख से आज भी, मरते हैं सरकार॥