रघुविन्द्र यादव के दोहे-8 / रघुविन्द्र यादव
जनता जिन से कर रही, लोकलाज की आस।
वे काला धंधा करें, उजला पहन लिबास॥
देवी अंधी न्याय की, बहरा है क़ानून।
भ्रष्ट व्यवस्था चूसती, निर्भय होकर खून॥
काग बने दरबार के, जब से खासमखास।
बगुलों को चौधर मिली, हंसों को वनवास॥
भ्रष्ट व्यवस्था खेलती, तरह तरह के खेल।
बड़े चोर हैं मौज में, छोटे काटें जेल॥
केशव पले सलीम घर, अली नंद के द्वार।
यही हमारी कामना, यही धर्म का सार॥
सलमा पाले श्याम को, गंगाजी रहमान।
कहें गर्व से हम सभी, मेरा देश महान॥
फ़ज़लू अब गीता पढ़े, केशव पढ़े क़ुरान।
अल्हा भी रहमत करें, खुश होवें भगवान॥
भारत से सद्भाव की, मिलती नहीं मिसाल।
केशव की लीला करें, अब्दुल और बिलाल॥
बिस्मिल पण्डित जात के, खॉन वीर अशफाक़।
ढूँढे से मिलता नहीं, ऐसा रिश्ता पाक॥
गाड़ी, बँगले, चेलियाँ, अरबों की जागीर।
ये सब जिसके पास हैं, वह ही आज फ़कीर॥
पाँच सितारा में करें, रामायण का पाठ।
धरती पर ही ले रहे, वे जन्नत के ठाठ॥
कहते जो उपदेश में, माया को दो त्याग।
रखते हैं वह संत भी, माया से अनुराग॥
याद सताये गाँव की, झर झर बहते नैन।
रोटी तो दी शहर ने, छीन लिया पर चैन॥
भूख पेट की ले गई, जिनको घर से दूर।
जड़ से कटकर हो गये, वे बँधुआ मजदूर॥
पेट पीठ से सट गया, हल$क गया है सूख।
राशन मुखिया खा गया, मिटती कैसे भूख॥
उनके हित बनते रहे, आये साल विधान।
भूख, ग़रीबी, क़र्ज़ से, मरते रहे किसान॥
दोहा दरबारी बना, दोहा बना फ़कीर।
नये दौर में कह रहा, दोहा जीवन पीर॥
दोहे को रहिमन मिले, तुलसीदास कबीर।
वृन्द बिहारी जायसी, पाकर हुआ अमीर॥
गीत ग़ज़ल करते रहे, शब्दों की बरसात।
चंद लफ्ज़ में कह गया, दोहा अपनी बात॥
नदिया अब कैसे करे, सागर पर विश्वास।
कतरा कतरा पी गया, बुझी न फिर भी प्यास॥