भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रघुविन्द्र यादव के दोहे-9 / रघुविन्द्र यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सच्चाई की राह में, काँटें हैं हर ओर।
मगर जीतती है सदा, गहन रात से भोर॥

मान लिया क्यों आपने, पतझड़ को ही अंत?
फूटेंगी फिर कोपलें, आने लगा वसंत॥

नाहक अपने ज्ञान पर, इठलाता इन्सान।
देख बया का घोंसला, चकराता विज्ञान॥

टुकड़े कर दो लाख तुम, करो वार पर वार।
हल्दी सज्जन सी रहे, रँगने को तैयार॥

सज्जन में ज्यों गुण छिपे, रंग हिना के बीच।
निर्मल रहता है सदा, कमल सने कब कीच॥

दाता तेरे न्याय पर, कैसे हो विश्वास?
सज्जन को कुटिया नहीं, दुष्टों को रनिवास॥

हल्दी कभी न त्यागती, अपना रंग हुजूर।
चंदन घिस कर भी रहे, खुशबू से भरपूर॥

भँवरा उड़ सकता नहीं, कहता है विज्ञान।
लेकिन ऊँचा हौसला, भरता रोज उड़ान॥

साधारण से लोग भी, रचते हैं इतिहास।
सीना चीर पहाड़ का, उग आती ज्यों घास॥

कायम जो भी रख सका, आस और विश्वास।
केवल उसने ही रचा, जीवन में इतिहास॥

सहज भाव से जो सहे, छेनी के सब वार।
मिलता उस पाषाण को, पुजने का अधिकार॥

एक शिला से टूटकर, आये दो पाषाण।
एक ठोकर में है पड़ा, एक बना भगवान॥

पानी को पानी कहे, कहे क्षीर को क्षीर।
मिला नहीं इस दौर में, ढूँढ़े कहीं कबीर॥