भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रचना / मोहन आलोक
Kavita Kosh से
वह रचता है
और जब रच देता है
तो उस रचना में
रचने के लिए -
कुछ भी शेष नहीं बचता है ।
हो सकता है
वह रचना
आपको अधूरी सी लगती रहे
और उसकी पूर्णता हेतु
आपके भीतर
कोई जिज्ञासा जगती रहे ।
हो सकता है
आप किसी अन्य रचना के साथ
उसका मिलान करते रहें
और यों
अपने आपको नाहक परेशन
करते रहें ।
लेकिन वह रचना
जैसी भी होती है
जोअ भी होती है
पूरी होती है ।
कोई भी रचना
किसी अन्य रचना के सदृश्य
कब जरूरी होती है ?
अनुवाद : नीरज दइया