रचने की शर्त / प्रताप सहगल
कविता लिखने के लिए अनुभव ज़रूरी है
यह एक वक्तव्य है
इस वक्तव्य की पड़ताल करते हैं
कविता लिखने के लिए अनुभव ज़रूरी है
पर आप मानेंगे कि
अनुभव को परखने वाली नज़र
उसका अर्थ बदल देती है।
मिसाल के तौर पर
चोरी करना एक अनुभव है
सीधा-सीधा वक्तव्य
आपको समाज-विरोधी लगता हो
तो इसे बदलकर यूँ लिख देते हैं
कि चोरी करना भी एक अनुभव हो सकता है
अब मान लीजिए मैं प्रधानमंत्री हूँ
और मैंने चोरी की है
तो आप कहेंगे
प्रधानमंत्री तो राजा होता है
और राजा को सात ख़ून माफ होते है
आप कुछ शास्त्रों का नाम भी लेंगे
फिर शस्त्र की ओर संकेत करते हुए
तुलसी को भी उद्धृत कर ही देंगे
‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’
फिर एक दिलचस्प खेल शुरू होता है
आपके बार-बार कहने पर
मैं भी मानने लगता हूँ
तब चोरी करने का
मेरा अनुभव
या तो परंपरा के खाते में चला जाएगा
या किसी चंदे के डिब्बे में
या फिर दब जाएगा किसी फ़ाइल में
मतलब यह कि यह अनुभव
कविता में तबदील ही नहीं होगा।
अब मान लीजिए
कि मैं एक आदमी हूँ
राजेश जोशी की कविता का
'इत्यादि'
सतह से जुड़ा हुआ
या निर्मल वर्मा के शब्दों में
सहत से सिर्फ 'डेढ़ इंच ऊपर'
यानी आदि-आदि होकर
मैंने चोरी की है
तो यकीनन यह अनुभव भारतीय दंड संहिता में लिखित
किसी जुर्म की धारा के तहत
रोज़नामचे में दाख़िल होगा ही
न जाने किस धारा के अंतर्गत
सीखचों के पीछे डाल दिया जाएगा
न सिर्फ यही
बल्कि वर्दी जूतों और
तेल पिलाए डंडों से
मेरे संवेदन-तंत्र की
त्वरा को भी बढ़या जाएगा।
इस अनुभव से
झरेंगे शब्द
पेड़ों से अंगारों की तरह
वे शब्द लिखेंगे कोई गीत
या गल्प या अंगारे बदलेंगे
रंगों या तानों में।
पड़ताल खत्म हुई
साबित हुआ
कि अनुभव की सापेक्षता
हालात की चाबुक
और नज़र का फेर भी
कुछ रचने के लिए
एक अनिवार्यता है।