रोला
(कलहांतरिता, धीरादि और खंडिता आदि का संक्षिप्त वर्णन)
रचि-रचि लीला-कलह, कबहुँ राधा रिसि ठानैं ।
हरि मनाइ जब चलत, तबै मन मैं दुख आनैं ॥
और रूप-रचि कबहुँ, स्याम-सँग राधा बिहरैं ।
ताहि जानि बृषभानु-सुता, दुख-ठाँनति हियरैं ॥४३॥
रोला
(कलहांतरिता, धीरादि और खंडिता आदि का संक्षिप्त वर्णन)
रचि-रचि लीला-कलह, कबहुँ राधा रिसि ठानैं ।
हरि मनाइ जब चलत, तबै मन मैं दुख आनैं ॥
और रूप-रचि कबहुँ, स्याम-सँग राधा बिहरैं ।
ताहि जानि बृषभानु-सुता, दुख-ठाँनति हियरैं ॥४३॥