भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रजनीगन्धा मेरा मानस / अज्ञेय
Kavita Kosh से
रजनीगन्धा मेरा मानस!
पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस
उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस,
मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस-
लो, पुलक उठी मेरी नस-नस जब स्निग्ध किरण-कण पड़े बरस!
तुम से सार्थक मेरी रजनी, पावस-रजनी से पुण्य-दिवस;
तू सुधा-सरस, तू दिव्य-दरस, तू पुण्य-परस मेरा सुधांशु-
इस अलस दिशा में चला विकस-रजनीगन्धा मेरा मानस!