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रजाई / कविता कानन / रंजना वर्मा
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					गर्मी गयी
आ गयी ठंढ
बनने लगीं रजाइयां
बढ़ गईं जरूरतें । 
रोज़ दफ्तर से लौटता
किशना है सोचता
इस बार तो 
ले ही जाऊँगा 
एक रजाई
बच्चों के लिये
ठंढ में सिकुड़े
एक दूसरे से चिपके
सो नहीं पाते
बेचारे
लेकिन क्या करे
हर बार बढ़ जाती है
सुरसा की तरह
पापिन मंहगाई
हर बार
कम पड़ जाती है 
तनख्वाह ।
बस रह जाता है
देखता
दुकान में रखी 
रंग बिरंगी 
रजाइयों को
ललचाई आंखों से।
	
	