भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रति-सुबिसारद तुहु राख मान / विद्यापति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रति-सुबिसारद तुहु राख मान। बाढ़लें जौबन तोहि देब-दान ।
आबे से अलप रस न पुरब आस। थोर सलिल तुअ न जाब पियास ।
अलप अलप रति एह चाह नीति। प्रतिपद चांद-कला सम रीति ।
थोर पयोधर न पुरब पानि। नहि देह नख-रेख रस जानि ।
भनइ विद्यापति कइसनि रीति। कांच दाड़िम फल ऐसनि पिरीति ।

[नागार्जुन का अनुवाद : तुम कामकेलि-विशारद हो। कान्‍हा, मेरा मान रख लो। जवानी जब पूरे निखार पर आएगी तो उसे मैं अपने आप तुम पर निछावर करूँगी। अभी तो इस कच्‍ची तरुणाई से तुम्‍हारी आस पूरी नहीं होगी। थोड़े जल से प्‍यास भला किस तरह बुझेगी? चन्द्रकला थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ती है, काम-कला भी उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके पूर्णता प्राप्‍त करती है। अभी तो मेरे कुच भी छोटे हैं, तुम्‍हारे हाथों में भरपूर नहीं आएँगे। रस के धोखे में इन पर अपने नाखून न जमा देना कहीं, देखना। विद्यापति के शब्‍दों में, 'यह कैसी रीति है! अनार के कच्‍चे फल को इसी तरह दुलराया जाता है !']