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रति / उपेन्द्र कुमार

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तुम्हारे नहीं आने की
व्यग्रता, और
आ जाने की
समग्रता
के बीच
अन्धेरे पुल पर खडे़
अनुमान के
वलयों, वृत्तों के बीच
डूबता-उतराता हूँ

परोसी भोग्यता को
बर्बरता से
चींथता
भीतर तक अतृप्त
पारदर्शी तुम
हवा में घुलकर
बनती हो गीत
लिखा गया था जो कभी
छातियों, नितम्बों की युगलबन्दी में।

किसी अंधेरी गुफा में
चरम परितृप्ति की कल्पनाएँ बिखरती हैं
तभी
गिरती है बर्फ
किरणें
सूरज चाँद की
आपस में उलझ
बना लेती हैं गुच्छे
जिनसे हम रहते हैं
तन्मय आबद्ध
परन्तु अन्त के बहुत पहले आरम्भ के बहुत नजदीक ही
फिसल जाती हो तुम
मैं खोजता डुबकियाँ लेता हूँ।

संतुष्टि से भरी मुस्कान
तृप्त आँखों से उड़ेल मेरे अंगों पर
परछाईं और देह की सीमा रेखा पर
डोलती तुम
रोमावलियों
केशगुच्छों की अतल गहराइयों से
बरसाती बिजली के कोड़े
छोड़ती असंख्य आलोक विशिख
खनकती
हो उठती हो विभोर।

अंगुलियों की बरसती बूँदें
सर्दी की ठिठुरन, गर्मी की तपन
के बीच तने मौसम में अटकी देखती हैं
निर्निमेष नीचे फैला सारा विस्तार
किसी हिमखंड-सा
धीरे-धीरे गल कर गुम होता

चमदागड़-सा उल्टा लटका हुआ सुख
चिंचियाता उड़ता है
किसी निशाचरी देह गंध में तृप्त होने
नाभी के गहरे वृत्त में
जहाँ से शुरू होती हैं
ढलान, गहराइयाँ
समतल पठार, पर्वतीय ऊँचाइयाँ।
कुंडली मारे चमकीला सर्प जागता है
लहराता है
लपलपाती जिह्वा
चाटती ओस
अंगारे चबाती
करती है विष-वमन अमृत कलशों में
चढ़ता है ज़हर तेज ओर तेज
अपनी सारी तपिश और तड़प के साथ
सनसनाता हुआ नसों में
कोड़े की तरह फटकारता
रात के बिस्तर में पड़ी
प्रसन्नता में उछलती तुम
सौंप देती हो नदी देह
मेरे हाथों को
पाटों की तरह अपने बीच से वे
देते हैं तुम्हें बहने
किनारों तक आती हैं
अंगूर गुच्छों से लदी बलें
और टहनियाँ प्यासे वृक्षों की।

ऊर्ध्वमुखी प्राण
आदिम लय में नृत्य करते
समेटते हैं प्रकाश पुंज
करते हैं तिरोहित
सारी सृष्टि को
धरती के अन्तरतम में।

नदी को पारदर्शी स्वच्छता
तल पर पड़े पत्थर।
विस्तृत बालुका राशि
हो जाती है
जलते रेगिस्तान-सी
खड़ी जिसके बीच तुम
तलुवे जलाती
ढँकती लज्जा आवरणों से
अपनी नग्नता

फैला देता हूँ
मकड़जाले
तरह-तरह के
ढँकते हैं वे जितना
करते हैं उतना ही निर्वस्त्र
सिहरती है त्वचा
मकड़ियों के चलने से
और वे बुनती ही जाती हैं
ढँकने को तुम्हें
घिनौने ढंग से आकर्षक
मकड़-जाले
और पहुँचते-पहुचते संगम तक
हो जाती है सरस्वती गुम
फिर वहीं
इन्द्रधनुषी पुल पर टंगा मैं
सुनता हूँ रुदन
तृप्ति की अतृप्ति से जन्मे
क्षोभ का
जिसे धारण नहीं किया गर्भ में कभी

रुदन, हाँ
कल्पना पुष्पों का रुदन
उजाले से अँधेरे को
वेदनासिक्त वीथियों में
फिर से पुत जाता है काला रंग
सारे इन्द्रधनुषों पर
उन्हीं हाथों
जिनसे रची जाती है कविता