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रत्ना की चाह / प्रतिभा सक्सेना

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थोड़ा-सा आत्म-तोष चाहता रहा था मन
पीहर में पति- सुख पा इठलाती बाला बन.
मन में उछाह भर, ताज़ा हो जाने का,
बार-बार आने का अवसर,
सुहाग-सुख पाने का .

थोड़ा सा संयम ही
चाहा था रत्ना ने,
भिंच न जाय मनःकाय
थोड़ा अवकाश रहे,
खुला-धुला, घुटन रहित.
नूतन बन जाए
पास आने की चाह .

कैसे थाह पाता
विवश नारी का खीझा स्वर,
तुलसी, तुम्हारा नर!
स्वामी हो रहो सदा
अधिकारों से समर्थ
पति की यही तो शर्त!

सह न सके .
त्याग गए कुंठा भर .
सारा अनर्थ थोप
एकाकी नारी पर!