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रद्दी अखबार से हम / राजेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अभावों की बंजारिन झोली में
रद्दी अखबार-से हम
बिकते रहे बेमौसम ।
लेकर इरादों के स्वेाटर में
जगह-जगह झोल
ऐसे पिटे कि जैसे बहरों की बस्तीं में ढोल
सिरफिरे वक्तज की ठिठोली में
गरीब के त्योजहार-से हम
रहे हर बार मुहर्रम ।
बंटते रहे-साझे की रखैल
जमीनों की तरह
व्यनर्थ ही बहे-मजदूर के विधुर पसीनों की तरह
पड़े रहे मेहनतकश की खोली में
उघड़े प्यार-से हम
लेकर परदों के भ्रम ।