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रफ़्तार अजनबी ओ सुख़न चीदा न हो जाए / 'सुहैल' अहमद ज़ैदी

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रफ़्तार अजनबी ओ सुख़न चीदा न हो जाए
वहशत ही क्या जो जलवा-ए-ना-दीदा हो न जाए

शब भर तो देखता है तेरी कज-अदाइयां
गुल क्या करे जो सुब्ह को नम-दीदा हो न जाए

इस ख़ौफ़ से छुपाए हूँ अपनी जराहतें
मेरा ये रंग उस का पसंदीदा हो न जाए

दस्तार में अना की अब इतने न पेच डाल
सब कुछ तेरे वजूद में पेचीदा हो न जाए

कहता है हँस के क़त्ल के क़ाबिल हो तुम ‘सुहैल’
डर है हँसी हँसी में वो संजीदा हो न जाए