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रफ़ कॉपी पर दर्ज़न भर रफ़ कविताएँ / विनोद विट्ठल

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(1)

हर कॉपी रफ़ कॉपी नहीं होती शुरू में 
बन जाती है बाद में

जैसे कुछ बच्चे बन जाते हैं चोर या भिखारी

(2)

हर कॉपी फ़ेयर बने रहना चाहती है 
सम्भाली जाना चाहती है किसी प्रेम-पत्र की तरह

वो क्या होता है नागरिक की तरह जो उसे बेबस कर देता है

(3)

शुरुआत ठीक होती है हर कॉपी की रिश्तों की तरह ही 
पर गर्मियों में अचानक गन्ध छोड़ती आलू की सब्ज़ी की तरह
कुछ बिगड़ जाता है 

और रफ़ हो जाती है कोई कॉपी जैसे गन्धा जाते हैं रिश्ते

(4)

नयी कोपियों को नए रिश्तों की तरह ही 
नहीं पता होता है हमारी फ़ितरत के बारे में

और इस तरह वे भी रफ़ कॉपियों में बदल जाती हैं

(5)

कटी पतंग और अमर प्रेम के गीत 
सुषमा पालीवाल के लैण्डलाइन नम्बर 
मधु गहलोत और कविता शर्मा के जन्मदिन
सितार बजाती खुले बालोंवाली प्रेरणा शर्मा का एक स्केच

इतनी ज़रूरी चीज़ें हम ग़ैर ज़रूरी समझ रफ़ कॉपी में लिखते हैं 
और फिर पूरी ज़िन्दगी उदास रहते हैं

(6)

पाँच साल में एक बार डालते हैं वोट 
फ़ेयर कॉपी की तरह

सरकारें उसे रफ़ कॉपी बना देती हैं

(7)

जब रफ़ कॉपियाँ नहीं होंगी हम किसमें अभ्यास करेंगे

बड़े होने पर क्या ज़िन्दगी ही रफ़ कॉपी हो जाती है

(8)

फ़ेयर कॉपियों के बचे पन्नों की कुछ बनाते हैं रफ़ कॉपियाँ 
कुछ के लिए ये ही फ़ेयर होती हैं

फिर भी, उन्हें पकड़ो जो देश की कॉपी को रफ़ कॉपी में बदल रहे हैं

(9)

रफ़ कॉपी का कोई एक विषय नहीं होता 
एक भाषा भी नहीं

फिर दुनिया को इकरँगा क्यूँ बनाया जा रहा है 
देश को कुछ लोग बना रहे हैं जैसे

(10)

कुछ तुकें होती है इनमें कुछ रेखाएँ भी

रफ़ कॉपी के साथ इस तरह खो जाते हैं कुछ कवि और चित्रकार

(11)

कोई तो स्कूल हो जहाँ रफ़ कॉपी के भी नम्बर मिलें

कमतर या कम सजावटी होना क्या कोई मूल्य नहीं

(12)

नौकरी में बरसों बाद समझ में आता है — 

मैं तो एक रफ़ कॉपी था, केवल इस्तेमाल हुआ