भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रवाँ दवाँ सू-ए-मंज़िल है क़ाफ़िला कि जो था / उर्फी आफ़ाक़ी
Kavita Kosh से
रवाँ दवाँ सू-ए-मंज़िल है क़ाफ़िला कि जो था
वही हनूज़ है यक-दश्त़ फ़ासला कि जो था
निशात-ए-गोश सही जल-तरंग की आवाज़
नफ़स नफ़स है इक आशोब-ए-कर्बला कि जो था
गया भी क़ाफ़िला और तुझ को है वही अब तक
ख़याल-ए-ज़ाद-ए-सफ़र फ़िक्र-ए-राहिला कि जो था
वो आए जाता है कब से पर घर आ नहीं जाता
वही सदा-ए-क़दम का है सिलसिला कि जो था