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रवातुर त्रुटियाँ / प्रतिभा किरण
Kavita Kosh से
तुम से मिलकर भी
अपूरित रही मेरी जीवन रिक्तता
काँठ की बनी तुम्हारी छाती पर
बरस कर सूख गये मेरे अश्रु
मेरी हथेलियों में
आज भी चुभती हैं तुम्हारी फेंचें
एक हल्के स्पर्श मात्र से
सिहर उठता है मेरा संसार
यह कैसी अर्द्धांगिनी
जीवनसंगिनी बना गए तुम मुझे
काँठ के टुकड़े से फँसे मेरे आँचल को
गठबन्धन का नाम तो मत दो
मेरा हृदय अब पाषाण है
इनसे निकलती चिंगारियाँ
मेरे, तुम्हारे साथ घिसटने की
साक्षी नहीं हैं
हे निर्लज्ज!
मुझ पर अब प्रहारों का हक है
क्या तुम सुन सकते हो
प्रत्येक चोट , प्रत्येक मार पर
मेरी परिवर्तित आवाज़ें?
तो अब लौटना मत,
मेरे एकल संघर्षों के द्वार पर
तुम्हारे दिए हुए घाव सुरक्षित हैं
हो सके तो किसी त्रुटि की भाँति
स्मरण हो आना