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रविवार / कुमार कृष्ण

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हफ्ते भर के थके लम्हों की रजाई है रविवार
वह है
कामकाजी महिलाओं के गीले बालों की खुशबू
समय का कबाड़ी
सुख-दुःख का डाकिया
बस केवल चौबीस घण्टों तक चहकने वाली
गोरैया है रविवार

सोचता है बार-बार रविवार
क्यों नहीं मिलता उसे बाज़ार जाने का मौका
उसके आने पर क्यों कर देते हैं बन्द
कुछ दुकानदार अपने-अपने द्वार


सुबह से शाम तक जलने वाला चूल्हा है रविवार
वह है तार पर उल्टे लटके कपड़ों की कहानी
वह छुपा कर रखता है बच्चों के बस्ते में
रबड़ की गेंद
वे खेल सकें हार-जीत का खेल
भूल जाएँ थोड़ी देर के लिए किताबों का सच
बच्चे जानने लगे हैं-
किताबों के पराजित सच के बारे में
वे जानने लगे हैं-
शहाबुद्दीन है सड़क का सच
किताबों का सच है मातादीन

रविवार छुपा कर रखता है शनिवार की आग
डाल देता है उसे सोमवार के कटोरे में
वह जलती रहे दिन-रात लगातार
हर नए दिन के साथ
दोस्तो उड़ता हुआ घर है रविवार
एक दूसरे की कमीज पहन कर
घूमते हैं जहाँ प्यार और बाज़ार

दोस्तो जिनके पास नहीं आता कभी रविवार
वे करते हैं सूर्य से प्रार्थना-
यदि हो पुनर्जन्म
तो अगले जन्म में आए उनके भी जीवन में रविवार
जान सकें वे सपनों का सुख
जान सकें अपनों का दुःख।