रविवार / प्रदीप शुक्ल
रविवार को बन्द रहता था स्कूल
छुपकर आराम करती थीं किताबें
पुरानी पैण्ट के झोले में
कॉपियों पर पैर फैलाकर
लेकिन, उठ जाते थे हम सब
रूटीन से काफी पहले
कभी मूँगफली बोने, गेहूँ के खेत में पानी लगाने,
अरहर के मजबूत पेड़ को
बाँके के एक ही वार से गिरा देने का सुख लूटने
मुँह अन्धेरे, साईकिल पर बस्ते की जगह
होता था डीज़ल का जरीकेन
कभी होती ओस भरी पतली मेड़ पर
डगमगाती साईकिल के कैरियर में,
पुरानी रबर ट्यूब से कसी गेहूँ की बोरी
रविवार को ही लगता था साप्ताहिक बाज़ार
लाना होता था पूरे हफ़्ते की सब्ज़ी,
डालडा, भैंस के लिए खली, लालटेन का शीशा
कभी कभी, ख़राब मौसम में मुस्कुराता था रविवार
होती थी कबड्डी,
उफनाए ताल में तैराकी प्रतियोगिता,
ऊदल का ब्याह या माड़ो की लड़ाई,
दहला पकड़
मैने कभी अलसाया हुआ रविवार
नही देखा बचपन मे