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रसधार अवनि पर बहने दो / विमल राजस्थानी

जो नहीं गुनगुनाया-गाया जाये वह काव्य छदाम का
जो सहज-सरल औ‘ सुगम नहीं, ऊँचा चिन्तन किस काम का
उसको भीतर ही रहने दो
मंचों पर कभी न कहने दो
संगीत-भरे जादू की बस,
रस-धार अवनि पर बहने दो
चितंन को सतरंगी पाँखें, दे दो डबडब हँसती आँखें
विधवा का भेष न दो इसको, ‘नवरस’ के शाश्वत गहने दो
इन धुँआ उगलती हुई चिमनियों को भाषण में गूँथो तुम
चितंन की शबनम को गुलाब की पंखुरियों पर रहने दो
लपटों में इन्हें न झोंको तुम, रोको, कुकृत्य यह रोको तुम
मुख मत पोतो तुम स्याही से मेरे चंदा अभिराम का

कुछ दिन छुट्टी ले तारों से
सच है-जमीन से जुड़ना है
तब-तजने हैं राजमार्ग
गलियों में भी तो मुड़ना है
जी भर खाये हैं राजभोग
सत्तू का सुख भी पाना है
पर इसका यह तो अर्थ नहीं
भावों को गूढ़ बनाना है
ये उलटबाँसियाँ, ये प्रतीक
विकृत, कुरूप, तिरछे, आड़े
कुछ छोटी-बड़ी लकीरों के
मस्तक पर जो झण्डे गाड़े
फेंको उखाड़ इन झण्डो को
शारदा चीखती-रोती है
सिर धुनता है संगीत,
आँसुओं से भाषा मुख धोती है
बोलो मीरा की-सी बोली, तुलसी-सी भाषा रस-घोली
वाणी को विकृत करो न तुम, मन जीतो चारों धाम का