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रसना ररकि-ररकि रह जाय / स्वामी सनातनदेव
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राग दुर्गा, तीन ताल 28.7.1974
रसना ररकि-ररकि रह जाय।
प्राननाथ की गुनगाथा कहु, कैसे कहै बनाय॥
मन वाणी की गम न वहाँ यों स्वयं वेद कह गाय।
ताकी महिमा कहन चहत सो का-का कहै सुभाय॥1॥
कथन अगम, पै बिना कथन हूँ कैसे करि रहि जाय।
जासों मिल्यौ सबहि कछु कैसे वाहीसों कतराय॥2॥
अपनी होय सफलता तब ही जब वाके गुन गाय।
याहीसों जो बनत सुनावत, कहि-कहि हूँ सकुचाय॥3॥
कहा सुनावै स्वयं महा जड़ जन्त्र-मात्र यह काय।
सचमुच तो जन्त्री ही अपने गुनगन गाय सुनाय॥4॥
रसना जन्त्र चलावत जन्त्री, आप स्वयं असहाय।
अपुनी बात कहत वह आपु हि, आपु हि कहि सकुचाय॥5॥