रसोईघर-एक / कमलेश्वर साहू
घर के अंदर
एक और घर का नाम है
रसोई घर
पूरे घर में
सिर्फ एक कमरे में बसती है
यह जादू नगरी
और यह जादू नगरी चलती है
एक स्त्री के इशारे पर
यह एक ऐसी पहेली है
जिसे हल करने के लिये
आपको चाहिए एक स्त्री का साथ
नहीं तो चाय की पत्ती ढ़ूढ़ने में ही
बीत जायेगा सारा समय
पानी उड़ जायेगा भाप बनकर
केतली रह जायेगी सूखी और गर्म
आग बबूला
ढेर सारे बर्तनों
छोटे बड़े डिब्बों, कनस्तरों
चाकू, पैसूल, हंसिया और सिलबट्टे की
एक ऐसी दुनिया है यह
जहां किसी भी चीज को हाथ लगाते हुए
कांपता है पुरूष का मन
नीबू मिल भी गया
तो नमक ढ़ूढ़ना हो जाता है मुश्किल
प्याज हाथ में हो
तो पैसूल हो जाता है लापता
चावल, दाल, शक्कर ढ़ूंढकर
अपनी पीठ थपथपा भी लें
तो सरसों, जीरा, आजवाइन खोजते
आ जाता है पसीना
जैसे-तैसे आटा गूथ भी लें
तो रोटी बेल पाना हो जाता है असंभव
चाकू और कद्दू के चक्कर में
कट जाती है उंगली
निकल आता है खून
यहीं आकर जलता है
हवन करते हुए हाथ
यह स्त्री के हाथ लगाने से
खिलने वाला फूल है
यह ऐसा वाद्य यंत्र है
जो स्त्री के हाथ लगाने से बजता है
यहां के संगीत के संसार का स्वप्न
अधूरा है स्त्री के बगैर
स्त्रियों की अस्मिता
उनकी प्रगतिशीलता
उनकी आजादी
उनकी मुक्ति
उनकी स्वतंत्रता की
तमाम घोषणओं व लड़ाईयों के बीच
यह स्त्री को ही पुकारता है
उसी के कदमों की आहट
और चूड़ियों की खनक से
खुलता है
इस जादू नगरी का द्वार
चाय-पानी, दाल-रोटी
चौका-बर्तन के चक्कर में
स्त्री को उलझाये रखने के लिये
रचे गये षडयंत्र का नाम
कतई नहीं है
रसोईघर !