रसोईघर-दो / कमलेश्वर साहू
स्त्रियों का ऐसा संसार है यह
जहां पुरूषों का प्रवेश वर्जित तो नहीं
मगर अघोषित तौर पर है असंभव
तमाम किस्म की लड़ाईयां
तमाम किस्म के युद्ध जीतने वाले
अक्सर इस व्यूह में प्रवेश कर
हुए हैं पराजित
उनके संघर्षों का ग्राफ
यहीं आकर गिरा है
उनकी सफलता
यहीं आकर मांगती है पानी
यह एक ऐसा तिलस्म है
ऐसी मायानगरी
जहां प्रवेश करते ही
मारी जाती है मति
सारा दंभ, सारा अहंकार
यहां प्रवेश करते ही
उड़ जाता है कपूर बनकर
और पूरूष के चेहरे पर
झुंझलाहट लगा देती है अपना मुहर
जिस धैर्य के लिये
जाने जाते हैं वे
दे जाता है जवाब
इस कारावास (पुरूष लगभग यही मानता है) में
रहना पड़ जाय दो चार घंटे
तो घुटने लगता है दम
दिमाग के सारे पुर्जे हो जाते हैं ढीले
जिन पुरूषों को लगता है
वे जान चुके हैं
इस किले को भेदने का रहस्य
उनको मंुह चिढ़ाता
उनको झुठलाता
स्त्रियों का यह संसार
स्त्रियों का यह स्वप्नलोक
ताल ठोकती चुनौती है
आज भी
उन पुरुषों के लिये
सदियों से अपराजेय है यह किला
इस किले पर
किसी पुरूष ने
आज तक नहीं गाड़ा
फतह का कोई झंडा !