रसोई घर में औरतें / सुदर्शन वशिष्ठ
यह कविता उनके नाम जो रहती हैं रसोई में
रसोई और घर के दो चार कमरे
या बहुत हुआ तो आँगन
ही है उसका संसार।
माँ करती है बेटे का इंतज़ार
पत्नि पति का, भाई का बहन
दहलीज़ लाँघना है
उनके लिए पहाड़ लाँघना।
डरते हुए पूछती है सब्ज़ी का स्वाद
नमक कम तो नहीं
मिर्च ज़्यादा तो नहीं
वे खाना नहीं प्यार परोसती हैं
जो खाते हैं नमक
नमक हरामी कहते हैं
उन्हें नहीं कुछ लेना-देना सुबह उठते ही जुट जाती हैं रसोई में
रात गहराने तक रहना है
वहीं बतियाना है सुस्ताना है
हँसना है रोना है
निढाल होना है
तभी रसोई को रसोई घर कहते हैं।
उन्हें नहीं मालूम
कोई बाहर कर् रहा इंतज़ार
उनके लिए आरक्षित हैं सीटें बरों में
सभाओं विधानसभाओं में
वे बन सकती हैं मॉडल विश्वसुन्दरियाँ
वे बन सकती हैं प्रधानमंत्री।
उन्हें नहीं जाना बाहर
उन्हें सिर्फ माँ बनना है
बहन बनना है
बहु बनना है
उन्होंने इंतज़ार में छलछलानी हैं आँखें
पथरानी हैं
उन्होंने छिपाए रखना है प्यार ताउम्र
उन्होंने देखना है घूँघट की ओट से साजन।
हाँ,वो जाती हैं बाहर
जब उन्हें हो जाती है ख़ून की कमी
या दुखने लगती है कमर घुटने अंग-अंग
या पति की मृत्यु पर हरिद्वार
उनके फूलों के संग।