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रस्ता कोई मेयार से हट कर नहीं देखा / नसीम सय्यद

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रस्ता कोई मेयार से हट कर नहीं देखा
क़ामत से किसी साए को घट कर नहीं देखा

दीवार-ए-अना से थीं परे उस की सदाएँ
पत्थर हुए पर हम ने पलट कर नहीं देखा

क्या जाने किसी प्यासे के काम आने की राहत
कूज़े में समंदर ने सिमट कर नहीं देखा

हर शहर को इक ज़िद सी रही घर न बना पाएँ
किस शहर के दामन से लिपट कर नहीं देखा

एहसास को मिलती नहीं इज़हार की ख़िलअत
लफ़्जों की अगर धार पे कट कर नहीं देखा