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रस्ते में कहीं चाहने वाले भी पड़ेंगे / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
रस्ते में कहीं चाहने वाले भी पड़ेंगे
दिल है तो कभी जस के लाले भी पड़ेंगे
गैरों से गले मिलके लिपटने की चाह में
अपनों से कभी आप के पाले भी पड़ेंगे
जिस नाम के हमनाम हों उस नाम के लिए
हिस्से में कभी देश निकले भी पड़ेंगे
कहते हो सफ़रे जीस्त पे निकले हो, देखना
काँटों के लिए पाँवों में छाले भी पड़ेंगे
जिस घर से निकलने की 'शलभ ' सोच रहे हो
लौटे किसी दिन और तो ताले भी पड़ेंगे
रचनाकाल : 14 मई 1984, जगदलपुर
शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।