रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएँ तो निभाएँ कैसे
हर तरफ़ आग है दामन को बचाएँ कैसे
रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएँ ...
दिल की राहों में उठते हैं जो दुनिया वाले
कोई कह दे के वोह दीवार गिराएँ कैसे
रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएँ ...
दर्द में डूबे हुए नग़मे हज़ारों हैं मगर
साज़-ए-दिल टूट गया हो तो सुनाएँ कैसे
रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएँ ...
बोझ होता जो ग़मों का तो उठा भी लेते
ज़िन्दगी बोझ बनी हो तो उठाएँ कैसे
रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएँ ...