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रस्सी बुनते दादा / निर्मल आनन्द
Kavita Kosh से
महीने-भर से बुन रहे हैं दादा
पटसन के रेशो को
अब वे आटेंगे ढेरा से हफ़्ते भर
फिर तैयार होंगे
रस्सी के कई गोल गुढ़ुवे
इन्हीं रस्सियों से बनाएंगे
गाय-बछड़ों के लिए गेरवा
बैलों की बागन
काँवर की जोती
दही का सींका
गाँथेंगे खाट, मचोलियाँ
और अंत में बनाएंगे दादा
एक लम्बी डोर झूले के लिए
देखता हूँ मैं दादा के कर्मठ हाथों को ध्यान से
सोचता हूँ
और आगे ले जाऊंगा मैं
हुनर की इस धारा को
दादा के हाथों से लेकर
अपने बच्चों तक ।