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रहता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर / शाह मुबारक 'आबरू'

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रहता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर ला-वबाली का
हुनर सीखा है उस शमशीर-ज़न ने बेद-माली का.

हर इक जो उज़्व है सो मिसरा-ए-दिलचस्प है मौजूँ
मगर दीवान है ये हुस्न सर-ता-पा जमाली का.

नगीं की तरह दाग़-ए-रश्क सूँ काला हुआ लाला
लिया जब नाम गुलशन में तुम्हारे लब की लाली का.

रक़ीबाँ की हुआ ना-चीज़ बाताँ सुन के यूँ बद-ख़ू
वगरना जग में शोहरा था सनम की ख़ुश-ख़िसाली का.

हमारे हक़ में नादानी सूँ कहना ग़ैर का माना
गिला अब क्या करूँ उस शोख़ की मैं ख़ुर्द-साली का.

यही चर्चा है मजलिस में सजन की हर ज़बाँ ऊपर.
मेरा क़िस्सा गोया मज़मूँ हुआ है शेर हाली का.

तुम्हारा क़ुदरती है हुस्न आराइश की क्या हाजत
नहीं मोहताज ये बाग़-ए-सदा-सर-सब्ज़ माली का.

लगे है शीरीं उस को सारी अपनी उम्र की तलख़ी
मज़ा पाया है जिन आशिक़ नें तेरे सुन के गाली का.

मुबारक नाम तेरे ‘आबरू’ का क्यूँ न हो जग में
असर है यू तेरे दीदार की फ़र्ख़ुंदा-फ़ाली का.