भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रहता है ज़ुल्फ़-ए-यार मिरे मन से मन लगा / बाक़र आग़ा वेलोरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रहता है ज़ुल्फ़-ए-यार मिरे मन से मन लगा
ऐ नाग तिरे हाथ से क्या ख़ूब मन लगा

देखा है जिन ने रू-ए-दिल-अफ़रोज़ को तिरे
बे-शक नज़र में बाग़-ए-इरम उस की बन लगा

सरसब्ज़ नित रखेंगे उन्हें मेरे अश्क ओ आह
ऐ नौ-बहार-ए-हुस्न जो चाहे चमन लगा

सीना सिपर कर आऊँगा कूचे में मैं तिरे
गरचा रक़ीब बैठे हैं वाँ तन से तन लगा

क्या फ़ाएदा है क़िस्सा-ए-रिज़वान से तुझे
कोई शम्अ-रू परी सते तू भी लगन लगा

‘आगाह’ ख़ार ख़ार जुदाई से हैं हज़ीं
यक-बार तू गले से उसे गुल-बदन लगा