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रहता है मशग़ला जहां बस वाह वाह का / ‘अना’ क़ासमी
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रहता है मशग़ला जहाँ बस वाह-वाह का
मैं भी हूँ इस फ़कीर उसी ख़ानक़ाह का
सद शुक्र हुस्न और शबे-बेपनाह का
वैसे इरादा कुछ भी नहीं है गुनाह का
मुझसे मिल बग़ैर कहाँ जाइयेगा आप
इक संगे-मील हूँ मैं मोहब्बत की राह का
या रब हर इक को इतनी मुसीबत ज़रूर दे
मतलब समझ सके वो ग़रीबों की आह का
मुन्सिफ़ की बात और है हक़ का मिज़ाज और
दावा हो ख़ुद दलील तो फिर क्या गवाह का
तुमको भी फुरसतें मिलीं मुझको भी थोड़ा वक्त
सोचेंगे कोई रास्ता फिर से निबाह का
उम्मीद है के कोई नया गुल खिलायेगा
ये सिलसिला बढ़े तो तिरी रस्मो-राह का
मजबूरो-नातवाँ1 कोई इंसाँ नज़र न आये
गुज़रेगा यां से क़ाफिला आलमपनाह का
शब्दार्थ
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