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रहने दो मेरा अवगुंठन / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
रहने दो मेरा अवगुंठन॥
सम्बंधों की डोर न बाँधो
प्रेम प्रीति के गीत न गाओ,
स्वप्न रंगीले हो नैनों में
वही पुरानी रीति न जाओ।
भावों का कर लो गठबंधन।
रहने दो मेरा अवगुंठन॥
झाँक रही भावना सलोनी
थाम शब्द के सुघर झरोखे,
इन्हें न समझो व्यर्थ भरे हैं
इनमें जीवन सार अनोखे।
तन छोड़ो देखो पावन मन।
रहने दो मेरा अवगुंठन॥
पत्र पुष्प के इंद्रधनुष पर
झलमल झल सपनों की पाती,
भाव सिंधु की उज्ज्वल धारा
जीवन के सम्बल-सी थाती।
अक्षर हो अनुपम अनुबंधन।
रहने दो मेरा अवगुंठन॥