भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रहमत खान / सपना चमड़िया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 तुमने मुझे डरा ही दिया
मन हुआ
थोड़ा किनारे ले जा कर
दरयाफ्त करूँ
किसकी नेक सलाह से ऐसा किया?
और थोड़ा डाँटू भी
मुझे जीने नहीं दोगे?
इतने भोले हो अभी भी
जानते नहीं हवा में
रक्त की गंध
सदियों तक रहती है
गले में रूमाल
आँखों में सुरमा
यहाँ तक तो फिर
भी ठीक था
पर कमअक्ल
क्या जरूरत थी
लिखवाने की
बड़े बड़े अक्षरों में
‘रहमत ख़ान का रिक्शा’
ये ऐलान, ये हिमाक़त
मारे जाओगे गुलफाम
और मारने से पहले
कोई नहीं देखेगा
कि
तुम्हारे रिक्शे पर
स्कूल के छोटे छोटे
बच्चे बैठे हैं।
कि रिक्शे पर बूढ़ी अम्मा
को बिना नाम पूछे
कितनी बार सहारे
से चढ़ाया है।
अब मत कहना
नाम में क्या रखा है
दुनिया बड़ी कमजर्फ
कि मियां
हिमाक़त होगी कहना
पर ख़ूब ही गाई गई है
अपने देश में नाम की महिमा।
दोष तुम्हारा भी क्या है
परंपरा से जो मिला है
उसी को सहेजा है
अब जब ऐलाने जंग
कर ही दिया है
तो दौड़ाते रहो
हैदरपुर से मानव चौक
तक अपना रिक्शा
घुलने दो अपना नाम
हवाओं में फिज़ाओं में।
जब वो आयेंगे
पड़ोसियों से, शाखों से
गली के कुत्तों से
कुरेदेंगे​​
तुम्हारा नाम
तो डर मत जाना
पलच मत जाना
बदल मत जाना
अम्मा बाबा का
दिया हुआ नाम
रहमत ख़ान।