रहस्य / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
उर्ध्व देश उस नील तमस में,
स्तब्ध हि रही अचल हिमानी,
पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक,
देख रहा वह गिरि अभिमानी,
दोनों पथिक चले हैं कब से,
ऊँचे-ऊँचे चढते जाते,
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे,
साहस उत्साही से बढते।
पवन वेग प्रतिकूल उधर था,
कहता-'फिर जा अरे बटोही
किधर चला तू मुझे भेद कर
प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही?
छूने को अंबर मचली सी
बढी जा रही सतत उँचाई
विक्षत उसके अंग, प्रगट थे
भीषण खड्ड भयकारी खाँई।
रविकर हिमखंडों पर पड कर
हिमकर कितने नये बनाता,
दुततर चक्कर काट पवन थी
फिर से वहीं लौट आ जाता।
नीचे जलधर दौड रहे थे
सुंदर सुर-धनु माला पहने,
कुंजर-कलभ सदृश इठलाते,
चपला के गहने।
प्रवहमान थे निम्न देश में
शीतल शत-शत निर्झर ऐसे
महाश्वेत गजराज गंड से
बिखरीं मधु धारायें जैसे।
हरियाली जिनकी उभरी,
वे समतल चित्रपटी से लगते,
प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर,
नद जो प्रति पल थे भगते।
लघुतम वे सब जो वसुधा पर
ऊपर महाशून्य का घेरा,
ऊँचे चढने की रजनी का,
यहाँ हुआ जा रहा सबेरा,
"कहाँ ले चली हो अब मुझको,
श्रद्धे मैं थक चला अधिक हूँ,
साहस छूट गया है मेरा,
निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ,
लौट चलो, इस वात-चक्र से मैं,
दुर्बल अब लड न सकूँगा,
श्वास रुद्ध करने वाले,
इस शीत पवन से अड न सकूँगा।
मेरे, हाँ वे सब मेरे थे,
जिन से रूठ चला आया हूँ।"
वे नीचे छूटे सुदूर,
पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।"
वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल,
श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी।
सेवा कर-पल्लव में उसके,
कुछ करने को ललक उठी थी।
दे अवलंब, विकल साथी को,
कामायनी मधुर स्वर बोली,
"हम बढ दूर निकल आये,
अब करने का अवसर न ठिठोली।
दिशा-विकंपित, पल असीम है,
यह अनंत सा कुछ ऊपर है,
अनुभव-करते हो, बोलो क्या,
पदतल में, सचमुच भूधर है?
निराधार हैं किंतु ठहरना,
हम दोनों को आज यहीं है
नियति खेल देखूँ न, सुनो
अब इसका अन्य उपाय नहीं है।
झाँई लगती, वह तुमको,
ऊपर उठने को है कहती,
इस प्रतिकूल पवन धक्के को,
झोंक दूसरी ही आ सहती।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र बंद बस,
विहग-युगल से आज हम रहें,
शून्य पवन बन पंख हमारे,
हमको दें आधारा, जम रहें।
घबराओ मत यह समतल है,
देखो तो, हम कहाँ आ गये"
मनु ने देखा आँख खोलकर,
जैसे कुछ त्राण पा गये।
ऊष्मा का अभिनव अनुभव था,
ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे,
दिवा-रात्रि के संधिकाल में,
ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।
ऋतुओं के स्तर हुये तिरोहित,
भू-मंडल रेखा विलीन-सी
निराधार उस महादेश में,
उदित सचेतनता नवीन-सी।
त्रिदिक विश्व, आलोक बिंदु भी,
तीन दिखाई पडे अलग व,
त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे,
अनमिल थे किंतु सजग थे।
मनु ने पूछा, "कौन नये,
ग्रह ये हैं श्रद्धे मुझे बताओ?
मैं किस लोक बीच पहुँचा,
इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ"
"इस त्रिकोण के मध्य बिंदु,
तुम शक्ति विपुल क्षमता वाले ये,
एक-एक को स्थिर हो देखो,
इच्छा ज्ञान, क्रिया वाले ये।
वह देखो रागारुण है जो,
उषा के कंदुक सा सुंदर,
छायामय कमनीय कलेवर,
भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर।
शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की,
पारदर्शिनी सुघड पुतलियाँ,
चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों,
रूपवती रंगीन तितलियाँ
इस कुसुमाकर के कानन के,
अरुण पराग पटल छाया में,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये,
अपनी भाव भरी माया में।
वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी,
कोमल अँगडाई है लेती,
मादकता की लहर उठाकर,
अपना अंबर तर कर देती।
आलिगंन सी मधुर प्रेरणा,
छू लेती, फिर सिहरन बनती,
नव-अलंबुषा की व्रीडा-सी,
खुल जाती है, फिर जा मुँदती।
यह जीवन की मध्य-भूमि,
है रस धारा से सिंचित होती,
मधुर लालसा की लहरों से,
यह प्रवाहिका स्पंदित होती।
जिसके तट पर विद्युत-कण से।
मनोहारिणी आकृति वाले,
छायामय सुषमा में विह्वल,
विचर रहे सुंदर मतवाले।
सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र-से,
मधुर गंध उठती रस-भीनी,
वाष्प अदृश फुहारे इसमें,
छूट रहे, रस-बूँदे झीनी।
घूम रही है यहाँ चतुर्दिक,
चलचित्रों सी संसृति छाया,
जिस आलोक-विदु को घेरे,
वह बैठी मुसक्याती माया।
भाव चक्र यह चला रही है,
इच्छा की रथ-नाभि घूमती,
नवरस-भरी अराएँ अविरल,
चक्रवाल को चकित चूमतीं।
यहाँ मनोमय विश्व कर रहा,
रागारुण चेतन उपासना,
माया-राज्य यही परिपाटी,
पाश बिछा कर जीव फाँसना।
ये अशरीरी रूप, सुमन से,
केवल वर्ण गंध में फूले,
इन अप्सरियों की तानों के,
मचल रहे हैं सुंदर झूले।
भाव-भूमिका इसी लोक की,
जननी है सब पुण्य-पाप की।
ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति,
बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।
नियममयी उलझन लतिका का,
भाव विटपि से आकर मिलना,
जीवन-वन की बनी समस्या,
आशा नभकुसुमों का खिलना।