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रहा यूँ तुम्हारे ख़यालों में खोया / रविकांत अनमोल

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रहा यूं तुम्हारे ख़्यालों में खोया
कि मैं मुद्दतों से न जागा न सोया

न मौजें थीं क़ातिल न पानी था गहरा
मुझे डूब जाने के डर ने डुबोया

अगर तुम भी होते तो हम मिल के रोते
बहुत देर तक मैं अकेले में रोया

बहुत ख़ाक छानी है दर दर की हमने
न जागा हमारा मुक़द्दर जो सोया

ग़मों की वही फ़स्ल काटी है मैंने
जिसे मैंने हरगिज़ न सींचा न बोया

तिरी याद आई मगर देर तक मैं
रहा सब्र का हाथ थामे न रोया

हज़ारों जनम हम रहे साथ लेकिन
तुम्हें मैंने अब तक न पाया न खोया

सुराही में डूबा न साग़र में डूबा
डुबोया तिरी चश्मे-तर ने डुबोया