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रहिये अगर वतन में तो इन्साँ की शान से / नज़ीर बनारसी

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रहिए अगर वतन में तो इन्साँ की शान से
वरना कफन उठाइए, उठिए जहान से

धड़कन है दिल की सुनिए करीब आ के कान से
यह शब्द वह नहीं जो अदा हो जबान से

अब शेर का शिकारी भी जायेगा जान से
वह तीर आखिरी था जो छुटा कमान से

आवाज खा न जाये कहीं साँय-साँय की
मुझको बचाइए मिरे सूने मकान से

बख्शी कभी न उसने भी आँगन को रोशनी
 उगते हैं तारे जिसके कदम के निशान से

मजदूर आदमी न हो कैसे थकन से चूर
सूरज भी हाँफ जाता है दिन की थकान से

धँस जाऊँगा जमीन में वापस न आऊँगा
वह तीर हूँ जो छुट चुका है कमान से

दिल से इक ऐसी हूक उठा करती है ’नजीर’
जेैसे धुआँ उठे किसी जलते मकान से