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रहि-रहि आबै छै याद / कुमार संभव
Kavita Kosh से
रहि-रहि आबै छै याद
कहिया के गेलोॅ पिया घुरियो न एैलोॅ
कोंन सौतनिया लैकेॅ, पिया विरमैलोॅ,
सतहा के सरंग हम्में देखौं पनियैलोॅ
लौटे के शपथ पिया हमरा देनें छेलोॅ,
मन भरलोॅ छै अवसाद
रहि-रहि आबै छै याद।
अजब-गजब ई सौनोॅ के सतहा
घर बैठी दिन्हें गाबै गोपीचन विरहा,
पर्वत, पहाड़, नदी, झरना भरी लोरोॅ सें कानै
योगिनी कानन कनरा में कानै छै 'विसहा'
करि-करि थकलै फरियाद
रहि-रहि आबै छै याद।
एैतैं अखार परदेशी सब धुरि घर आबै छै
आदमी की? पशु केॅ भी निज घर भावै छै,
एक तोंही निरमोही दुनिया में एहिनोॅ
जेकरा नै निज सजनी के याद सताबै छै,
जेनां मारै हिरणी केॅ ब्याध
रहि-रहि आवै छै याद।