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रही नगुफ़्ता मेरे दिल में दास्ताँ मेरी / मीर तक़ी 'मीर'

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रही नगुफ़्ता मेरे दिल में दास्ताँ मेरी
न इस दयार में समझा कोई ज़बाँ मेरी

बरंग-ए-सौत-ए-जरस तुझ से दूर हूँ तनहा
ख़बर नहीं है तुझे आह कारवाँ मेरी

उसी से दूर रहा अस्ल-ए-मुद्दा जो था
गई ये उम्र-ए-अज़ीज़ आह रायगाँ मेरी

तेरे फ़िराक़ में जैसे ख़याल मुफ़्लिस का
गई है फ़िक्र-ए-परेशाँ कहाँ कहाँ मेरी

दिया दिखाई मुझे तो उसी का जल्वा "मीर"
पड़ी जहाँ में जा कर नज़र जहाँ मेरी