भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रही वक़्के-अज़ाब ऐ हमनशीं जाने हज़ी बरसों / मेला राम 'वफ़ा'
Kavita Kosh से
रही वक़्के-अज़ाब ऐ हमनशीं जाने हज़ी बरसों
सहेगा कोई क्या जो सख्तियां हम ने सहीं बरसों
निकलना था न निकला अख़्तर-ए-तक़दीर गर्दिश से
दुआएं मुद्दतों मांगीं मुनाजातें भी कीं बरसों
मिरी तारीक़ दुनिया है वो दुनिया यास ओ हमीं की
जहां उम्मीद की सूरत नज़र आती नहीं बरसों
वो साज़िश ग़ैर के ईमाँ पे थी शैख़-ओ-बरहमन की
जो देखी है मिरी आंखों ने जंगे-कुफ़्र-ओ-दीं बरसों
ये माबादे-फ़ना भी दिल की बेताबी न जायेगी
नज़र आयेगी लरजां मेरे मर्कद की ज़मीं बरसों।