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रही वक़्के-अज़ाब ऐ हमनशीं जाने हज़ी बरसों / मेला राम 'वफ़ा'

रही वक़्के-अज़ाब ऐ हमनशीं जाने हज़ी बरसों
सहेगा कोई क्या जो सख्तियां हम ने सहीं बरसों

निकलना था न निकला अख़्तर-ए-तक़दीर गर्दिश से
दुआएं मुद्दतों मांगीं मुनाजातें भी कीं बरसों

मिरी तारीक़ दुनिया है वो दुनिया यास ओ हमीं की
जहां उम्मीद की सूरत नज़र आती नहीं बरसों

वो साज़िश ग़ैर के ईमाँ पे थी शैख़-ओ-बरहमन की
जो देखी है मिरी आंखों ने जंगे-कुफ़्र-ओ-दीं बरसों

ये माबादे-फ़ना भी दिल की बेताबी न जायेगी
नज़र आयेगी लरजां मेरे मर्कद की ज़मीं बरसों।