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रहे ख़िज़ां मे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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रहे ख़िज़ां मे तलाशे-बहार करते रहे
शबे-सियह से तलब हुस्ने-यार करते रहे

ख़याले-यार, कभी ज़िक्रे-यार करते रहे
इसी मता पे हम रोज़गार करते रहे

नहीं शिकायते-हिज़्रां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्ता-ए-दिल उस्तवार करते रहे

वो दिन कि कोई भी जब वजहे-इन्तज़ार न थी
हम उनमे तेरा सिवा इन्तज़ार करते रहे

हम अपने राज़ पे नाज़ां थे शर्मसार न थे
हर एक से सुख़ने-राज़दार करते रहे

ज़िया-ए-बज़्मे-जहां बार-बार मांद हुई
हदीसे-शोलारुख़ां बार-बार करते रहे

उन्ही के फ़ैज़ से बाज़ारे-अक़्ल रौशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे