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रहे महरूम ए मंज़िल दरबदर की खाक़ ही छानी / सिया सचदेव
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रहे महरूम ए मंज़िल दरबदर की खाक़ ही छानी
मुक़दस प्यार के रिश्ते की तुमने क़द्र कब जानी
जो कल मुखलिस था मेरा आज वो ही गैर लगता है
मुझे बदले हुए इस तौर पर होती है हैरानी
अगर एहसान होते याद तो ऐसा नहीं होता
मगर अफ़सोस शायद मर गया है आँख का पानी
मुझे ख़्वाहिश थी जिसकी सरबलन्दी और शोहरत की
मगर अफ़सोस उसकी बेहिसी मैने न पहचानी
बता इसके सिवा या रब तेरी तख़लीक़ में क्या है
हवा है खाक है आकाश है,है आग और पानी
हुनर मेरा मुझे ज़िंदा रक्खेगा उम्र भर यूही
इसे समझे अना मेरी या समझेँ कोइ मनमानी
मुझे तनहा ही लड़ना अपने मक़सद के लिये होगा
सुखन के नाम पे देती रहूँगी अपनी क़ुर्बानी
सिया अब रोक कर कोइ दिखाये रास्ता मेरा
है मेरा अज़्म आँधी सा मेरा जज़बा है तूफ़ानी