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रहे रक़ीब से बाहम वो सीम-बर महज़ूज़ / मह लक़ा 'चंदा'
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रहे रक़ीब से बाहम वो सीम-बर महज़ूज़
हुआ न आह का अपने कभी असर महज़ूज़
दरेग़ चश्म-ए-करम से न रख के ऐ ज़ालिम
करे है दिल को मेरे तेरी यक नज़र महज़ूज़
न बार बार हवस को नबात की मुझ को
रखे जो एक ही बोसा में लब-ए-शकर महज़ूज़
तमाशा एक ख़ुदाई का हम दिखाते हैं
तो कीजिए बंदा-नवाजी हुए हो मगर महज़ूज़
यही दुआ है कि ‘चंदा’ का दिल अली वली
तेरे करम से रहे शाम और सहर महज़ूज