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रह गई कमी कोई / अनिरुद्ध नीरव
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झुक गई कमर अब तो
बूढ़ी पुश्तैनी दीवार की
रह गई कमी
कोई पाग़ल बौछार की
गड़गड़ाहटें पी कर
बिजली की कौंधने पचा कर
युद्धों संघर्षों की
एक सदी
डगमग-सी नाव में बचा कर
फटती है मौन हँसी
मुँह खुले दरार-सी
कील काँटियों के
नित घाव नए
क्षणभंगुर कैलेण्डर के लिए
छुई की सफ़ेदी
कुछ पिलछहूँ सफ़े जैसी
दीमक रेखाओं के हाशिए
आले की रामायण
और जन्मघुट्टी को
चाहत है दूसरे दयार की
छप्पर तक तने-बने
मकड़ी के जाल के
चँदोवे के नीचे रह लेते
कीट भक्षती
गंदी छिपकलियाँ
देह गिरे असगुन सह लेते
सही नहीं जाती है
पीर किन्तु
अब रंध्रों से बीछीमार की ।